Vakht ki sakhti


वख्त ने बड़ी रफ़्तार पकड़ ली है
गुज़रने का अंदाज़ा भी न होने दे रहा है

सुबह दिन को राह देती है
और दिन रात को

पकड़ नहीं आ रहा है वो मंज़र
सुन ले जो मेरी बात को

बस जीने में
और जीने के लिए जीने में
इतना मसरूफ रहने लगा हूँ

की तंबी करनी पड़ती है
तब जाकर कमबख्त रुकता है
मेरी शय पर हि  उतावला हुआ था
अब यही उतावलापन दुखता है

जो ढाँचे बनाये थे
उनकी अधूरी इमारतों पर सवाल
ये बात बात पर निकालता है
बाल की खाल

धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा रोज़ कुरेद रहा है
रोकना होगा वर्ना सब नोच डालेगा

ये वख्त बहोत सख्त है

सपनों का एक एक नक्श
खरोंच डालेगा 

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