मेरी नज़र कमज़ोर थी
मुझे उसने दिखाया

दिन में कई बार गुज़रा उन गलियों से
पर कुछ न समझ आया

वो दास्तां असल थी
दिखावा नकली था

झलकता हर बात में जज्बा लेकिन
असली था

इस शेहेर में रहते कुछ बरस तो मुझे भी हुए
पर मुफ्त में दिखा तो देखना न चाहा

फिर किसी ने उसकी तस्वीर उतारी
बेहद खूब्स्सोरती से निखारी

और अँधेरे में दिखाई
आज मैंने कीमत चुकाई थी देखने की

जो रोज़ मर्रा ज़िन्दगी खर्चते न देख पाए
वो तफसील सिर्फ ढाई सौ रुँपये में
एक सिनेमा हाल के परदे पर क्या साफ़ नज़र आई...

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