आदतों की
खुशियों की
ख्वाहिशों की
उमीदों की बुनावट है

उधडती फिर सिलती
उभरती और मसलती
दिल की आवाजों की ये आहट है

वज़न भारी है
गुथी ज़िम्मेदारी है
कब्ज़े में ना आने वाली
अजब सी बीमारी है

कभी मै खुद हूँ
कभी कोई और
गुज़रते रहते हैं बदलते ये दौर

सवाल इतने हैं की जवाब थक जाते हैं
जवाब इतने लापरवाह
के ना बन पाती है
उन्हें समझने की जगह

मै छोड़ देता हूँ
सवालों में पकड़ना
अरमानो में जकड़ना

फिर देखता हूँ
कौन वापस आता है
या कौन कितनी दूर जाता है

क्या मै हूँ भी वहां
जहाँ मै होना चाहता था
या हमेशा खुद को दिलासा ही दिलाता था .


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