ये धीरे धीरे गुज़रता हुआ वख्त तारीख बना जा रहा है
न कुछ हुआ इसमे ज़ोर से चिल्ला रहा है ,
भूल जायेंगे सब इसे
डरता है इस तकदीर से ,
कोई आओ ज़रा इसकी तकदीर तो चमकाओ
इसके माथे पर चार चाँद लगाओ ,
कौन है किसका मोहताज
वख्त हमारा या हम वख्त के ?
या फ़िर बारी बारी दोनों ही आज़माए जायेंगे,
कभी हम अपने वख्त की
और कभी वख्त हमारी दास्ताँ सुनायेंगे ..

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"Ya phir baari baari dono hi azmaye jayenge", very well said Shanu and very beautifully put too. Where there's such a thought, there's passion, there's hope!

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