
हर दरख्त आज ज़ोर से चिल्लाता है
अपने पत्तों के सरसराहट से शोर मचाता है
इंसान को जब जब ऐसे खामोश किया जाता है
इन बेचारी सड़कों को समझ नही आता है
हैरान परशान उन क़दमों को ढूँढती है
गैर्मौजूदगी में कैसे उन्ग्ती हैं
दुकानों के चेहरों पर परदा पड़ जाता है
और हमें अपनी छतों से झाँकने में कितना मज़ा आता है
न आदमी न आदमी की ज़ात
किसी की मजबूरी किसी की सौगात
ये वो हालात हें जो हम पैदा करते हैं
जब खुदा के नाम पर एक दूसरे से लड़ते हैं
इस वख्त शायद मजबूरन सुकून है
तंबी से काबू करा जूनून है
अब बैठो और इन्तिज़ार करो
अपनी बदनसीबी का अख़बारों में इश्तिहार पढो .
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1:01 AM