मयार- ए- जज़्बात की िमसाल बन जाते हैं
कुछ लोग िरश्तों को ऐसे िनभाते हैं
नज़र उठती है जब भी उनकी ओर
खुद को हम बहोत नीचे पाते हैं
मीलों चलते हैं वो एक लम्हा कमाने को
और दो कदम पर मौजूद िज़न्दगी को हम नहीं अपनाते हैं
कैसा है आखिर ये कुदरत का नज़ाम
के हमेशा है आता उनपर इल्ज़ाम
जो ता-िज़न्दगी,बेगरज़ अपनी जान लुटाते हैं
और लूटने वाले दूर खड़े िसर्फ और िसर्फ मुस्कुराते हैं !
कुछ लोग िरश्तों को ऐसे िनभाते हैं
नज़र उठती है जब भी उनकी ओर
खुद को हम बहोत नीचे पाते हैं
मीलों चलते हैं वो एक लम्हा कमाने को
और दो कदम पर मौजूद िज़न्दगी को हम नहीं अपनाते हैं
कैसा है आखिर ये कुदरत का नज़ाम
के हमेशा है आता उनपर इल्ज़ाम
जो ता-िज़न्दगी,बेगरज़ अपनी जान लुटाते हैं
और लूटने वाले दूर खड़े िसर्फ और िसर्फ मुस्कुराते हैं !
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