365 दिनों का हिसाब है
किताब मेरी बस भरने ही वाली थी
लिखा हर हर्फ़ पर रोज़ का सफ़र था
कहीं पर ज़रा सी भी जगह न ख़ाली थी
जो लिखते व़खत भाया
वो बाद में समझ न आया
जो गम के बयान थे
वो पढ़ने में आसान थे
सिलसिला था कभी ज़बरदस्त उछालों का
कभी था रेला खामोश सवालों का
उलझते सुलझते एक बुनावट अब नुमाया है
आज देख कर लगा
ये साल न हुआ ज़ाया है
बस इतना काफ़ी है
काफ़ी है इतना
गुज़र जाए जीते व़खत जितना :-)
किताब मेरी बस भरने ही वाली थी
लिखा हर हर्फ़ पर रोज़ का सफ़र था
कहीं पर ज़रा सी भी जगह न ख़ाली थी
जो लिखते व़खत भाया
वो बाद में समझ न आया
जो गम के बयान थे
वो पढ़ने में आसान थे
सिलसिला था कभी ज़बरदस्त उछालों का
कभी था रेला खामोश सवालों का
उलझते सुलझते एक बुनावट अब नुमाया है
आज देख कर लगा
ये साल न हुआ ज़ाया है
बस इतना काफ़ी है
काफ़ी है इतना
गुज़र जाए जीते व़खत जितना :-)
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